चलन लागे, ठुमुकि ठुमुकि नँदलाल ।
ठड़े होत पग द्वैक चलत पुनि,
गिरि गिरि परत गुपाल।
पुनि घुटुरुवनि गवनि तहँ पहुँचत,
जहँ देहरी विशाल।
कर-पद-उदर सबै छल बल करि,
लाँघन चह ततकाल ।
लाँघि न सकेउ मचायेउ रोदन,
दौरीं मातु बेहाल ।
बंक भृकुटि जेहि प्रलय सोइ कर,
लीला बाल रसाल ।
जनि रोवहिं मेरो लाल काल हीं,
देहरिहि देउँ निकाल ।
इमि ‘कृपालु’ कहि हरि दुलरावति, देहरिहिं ताड़ति ताल ॥